जन्मतिथि |
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19.03.1896 |
जन्म स्थान |
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आमगांव ग्राम, जिला नरसिंहपुर
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वैवाहिक स्थिति
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विवाहित
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पत्नी का नाम
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श्रीमती ललिताबाई
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संतान
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3 पुत्र, 3 पुत्रियां
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शैक्षणिक योग्यता
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बी.ए., एल.एल.बी.
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व्यवसाय |
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वकालत |
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सार्वजनिक एवं राजनैतिक
जीवन का संक्षिप्त विकास क्रम : |
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आरम्भ से ही दुबे जी ने हिन्दू धर्म, संस्कृति, दर्शन और हिन्दू समाज के अभ्युत्थान
में रूचि ली. सनातन धर्म में अपनी गहरी आस्था के कारण कुछ वर्ष पूज्य पं. मदन मोहन
मालवीय जी के मार्गदर्शन में काम किया. सन् 1935 में हितकारिणी विधि महाविद्यालय में
आचार्य नियुक्त हुए. |
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सन् 1937 में
आपने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की. अपने प्रखर व्यक्तित्व के कारण आप शीघ्र ही
कांग्रेस के प्रमुख कार्यकर्ताओं में गिने जाने लगे. सन् 1939 में आप अखिल भारतीय कांग्रेस
के प्रसिद्ध ऐतिहासिक त्रिपुरी अधिवेशन के लिये गठित स्वागत समिति के सचिव बनाये गये.
इस कांग्रेस अधिवेशन की व्यवस्था बड़ी सफलता पूर्वक हुई, जिसका बहुत कुछ श्रेय पंडित
जी को था. जनवरी 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिये महात्मा गांधी ने आह्वान
किया था. उस समय ठाकुर छेदीलाल और रघुनाथ सिंह के बाद वे डिक्टेटर बनाये गये और इस
संबंध से उन्होंने पूरे प्रान्त का दौरा कर सत्याग्रहियों की सूची के संबंध में
महात्मा गांधी से मिले. जब गांधी जी ने पंडिल जी द्वारा प्रस्तुत सूची को स्वीकार
कर लिया तब उसे सरकार को सूचित किया गया और वे सत्याग्रह के लिये अग्रसर हुए. परन्तु
सत्याग्रह करने के पहले उन्हें पुलिस ने घर पर ही हिरासत में ले लिया. इसके लिये
उन्हें 6 महिने की सजा दी गई. जेल से छूटकर कांग्रेस के कार्य में रत रहे और 1942
में बम्बई के प्रस्द्धि अधिवेशन में वे 8 अगस्त को शामिल हुए. अधिवेशन समाप्ति के
बाद जब वे रेल से जबलपुर आ रहे थे तो उन्हें शहपुरा के स्टेशन मास्टर ने रेल को
रूकवाकर रेल में ही बन्दी बना लिया और इस तरह वे फिर से जेल में बन्द रहे.
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जेल से छूटने
के बाद प्रथम विधान सभा के चुनाव में जबलपुर से निर्विरोध चुने गये. 2 अक्टूबर, 1946
के मंत्रिमंडल में वे मुख्य संसदीय सचिव बनाये गये. 1946 में वे नागपुर विश्वविद्यालय
के उप कुलपति चुने गये. वे नागपुर विश्वविद्यालय के लगातार 3 बार उप कुलपति चुने गये.
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सन् 1947 में
उन्होंने मुख्य संसदीय सचिव के पद से त्याग-पत्र दे दिया और सम्पूर्ण समय उन्होंने
विश्व विद्यालय में लगाना आरम्भ किया. सन् 1934 में इन्टर-युनिवर्सिटी बोर्ड भारत,
बर्मा और श्रीलंका की बैठक में उन्हें अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. वे लगातार 3 वर्ष
इन्टर-युनिवर्सिटी बोर्ड के अध्यक्ष रहे. सन् 1934 के चुनाव के पश्चात् वे विधान
सभा के अध्यक्ष चुने गये. सन् 1953 और 1954 में कैम्ब्रिज और किंग्सट के अधिवेशनों
इन्टर-युनिवर्सिटी बोर्ड का प्रतिनिधित्व सफलता के साथ किया.
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नागपुर विश्वविद्यालय
में पंडित जी ने हिन्दी और मराठी को उचित स्थान दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण कार्य
किया. यह बिलकुल नवीन और साहसिक कदम था. आपके प्रयत्नों से अंग्रेजी भाषा के उच्च
कोटि के ग्रंथो का हिन्दी में अनुवाद हुआ और हिन्दी में मौलिक ग्रन्थ भी लिखे गये.
इनमें से अधिकांश ग्रन्थ विज्ञान संकाय विषयों से संबंधित थे. इन ग्रन्थों में से
42 ग्रन्थ सन् 1934 में प्रकाशित हुए और 75 ग्रन्थ और तैयार किये गये. यह उन महानुभावों
के लिये करारा जवाब है, जो आज भी कहते हैं, कि विज्ञान और तकनीकी विषयों में हिन्दी
माध्यम से अध्ययन-अध्यापन संभव नहीं है.
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आप राज्य पुनर्गठन के कारण 1 नवम्बर, 1956 को नवगठित मध्यप्रदेश में विधान सभा के अध्यक्ष
निर्वाचित हुए. सन् 1957 में जबलपुर क्षेत्र से चुने जाने के पश्चात् वे फिर विधान
सभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. सन् 1956 में जबलपुर विश्वविद्यालय विधेयक पारित हुआ
और वे जबलपुर विश्वविद्यालय के फाउन्डर वाइस चान्सलर रहे. जबलपुर विश्वविद्यालय
का निर्माण आपके कार्यकाल में बड़ी सफलता से हुआ और उनका यह कार्यकाल 11 वर्ष तक चला.
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हिन्दी जगत
में भी पंडित जी की सेवायें अमर रहेंगी. नागपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति होने के
नाते आपने अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना मातृभाषा हिन्दी और मराठी में कराई. इसके
अतिरिक्त अनेक महत्वपूर्ण प्रकाशनों का अनुवाद भी कराया. मध्यप्रदेश विधान सभा के
अध्यक्ष होने के नाते भी अपने हिन्दी को प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में बड़ा महत्वपूर्ण
कार्य किया. सन् 1959 में इन्हीं सेवाओं के उपलक्ष्य में आप मध्यप्रदेश हिन्दी
साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. आपके अध्यक्ष काल की सेवाओं को कभी
भी भुलाया नहीं जा सकता. आपके व्यक्तिगत आग्रह पर इस सम्मेलन के अधिवेशन के उद्घाटन
हेतु स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू पधारे थे.
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सन् 1967 के
आम चुनाव में पुन: जबलपुर से चुने जाने के बाद पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र के मंत्रिमण्डल
में वे वित्त मंत्री बनाये गये. श्री श्यामाचरण शुक्ल के मंत्री-मंडल में भी वे
वित्त मंत्री रहे.
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आपकी सर्वतोन्मुखी सेवाओं के लिये आपको सन् 1964 में भारत के राष्ट्रपति ने ''पद्मभूषण''
की उपाधि से विभूषित किया. विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में की गयी सेवाओं और उपलब्धियों
के लिये आपको सन् 1965 में एल.एल.डी. की उपाधि से विभूषित किया गया. विक्रम विश्वविद्यालय
ने 1967 में आपको डी.लिट. की उपाधि प्रदान की.
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दिनांक 2 जून 1970 को आपका स्वर्गवास हो गया.
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