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(भूतपूर्व राज्‍यपाल, मध्‍यप्रदेश)  
श्री हरि विनायक पाटस्‍कर
(दिनांक 14.06.1957 से 10.02.1965 तक)

     जन्‍म -- 15 मई सन् 1892 को इन्‍दापुर, पूना में.
     शिक्षा -- बी.ए., एल.एल.बी., (बम्‍बई) एल.एल.डी., (Honoris causa) जबलपुर, सागर और विक्रम विश्‍वविद्यालय.
आपने न्‍यू इंग्लिश स्‍कूल, पूना, फर्ग्‍युसन कॉलेज, पूना तथा गवर्नमेन्‍ट लॉ कॉलेज, बम्‍बई में शिक्षा ग्रहण की.
     विवाहित -- 29 मार्च 1913 को श्रीमती अन्‍नपूर्णा बाई के साथ हुआ. एक पुत्री.

     सार्वजनिक एवं राजनैतिक जीवन का संक्षिप्त विकास क्रम :
                  आप बम्‍बई उच्‍च न्‍यायालय और उसके बाद भारत के सर्वोच्‍च न्‍यायालय के एडवोकेट रहे. सन् 1920 से लगातार अनेक वर्षों तक आप अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्‍य रहे. सन् 1926 में बम्‍बई विधान परिषद् के सदस्‍य बने तथा 1930 में महात्‍मा गांधी के अवतरित होने पर सदस्‍यता से त्‍यागपत्र दे दिया. सन् 1921-37 में आप चालीसगांव नगरपालिका के अध्‍यक्ष रहे. सन् 1937-39 और 1945-52 में बम्‍बई विधानसभा के सदस्‍य रहे. सन् 1947-50 में आप संविधान सभा के सदस्‍य रहे. 15 वर्षों तक नारायण बैंकट जमखाना, चालीसगांव की गवर्निंग बॉडी के सभापति रहे. अनेक वर्षों तक चालीसगांव के अंधों के अस्‍पताल के सभापति रहे. सन् 1925 से 1945 तक राजनीतिक पीडि़तों का नि:शुल्‍क बचाव किया. चालीसगांव में हरिजनों के लिए बोर्डिंग हाउस और हाईस्‍कूल के संस्‍थापक रहे. कुष्‍ठ रोगियों और अन्‍य असहायों और गरीबों की आप हमेशा सहायता करते रहे. सन् 1942 के स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन में जेल यात्रा की.
                    सन् 1952 में देश के प्रथम सामान्‍य निर्वाचन में लोक सभा के सदस्‍य के रूप में विजयी होकर सन् 1955 से 1957 तक विधि एवं तदनंतर नागरिक उड्डयन विभाग के मंत्री पद को सुशोभित करते रहे. तत्‍पश्‍चात् दिनांक 14.6.1957 से 10.2.1965 तक वे मध्‍यप्रदेश के लोकप्रिय राज्‍यपाल के रूप में प्रजातांत्रिक परम्‍पराओं का अनुसरण करते हुए प्रदेश की जनता और सरकार का मार्गदर्शन करते रहे. आप मध्‍यप्रदेश में सबसे अधिक अवधि तक रहने वाले राज्‍यपाल थे. राज्‍यपाल के पद से सेवानिवृत्‍त होने के पश्‍चात् आप आसाम पर्वतीय सीमा आयोग के सभापति नियुक्‍त हुए थे.
                    आप अपने जीवन काल में कई आयोगों तथा समितियों के अध्‍यक्ष रहे. उनमें गंभीरतम विवादों को हल करने की असाधारण क्षमता थी. वे महाराष्‍ट्र-मैसूर सीमा-विवाद संबंधी चार सदस्‍यीय समिति के सदस्‍य थे. आपने आन्‍ध्र और मद्रास के सीमा-विवाद की भी मध्‍यस्‍थता की थी.
                    केन्‍द्रीय विधि मंत्रित्‍व काल का उनका ऐतिहासिक ''हिन्‍दू कोड बिल'' भारत के विशाल हिन्‍दू समाज की प्रगति के इतिहास में सदा अमर रहेगा. देश के संविधान निर्माण में उनके विद्वतापूर्ण योगदान की प‍ंक्तियां तो अपने अंत:स्‍थल में श्री पाटसकर की स्‍मृतियां सदा जागृत करती रहेंगी. अपने जीवन के अंतिम समय में सन् 1967 से आप पूना विश्‍वविद्यालय के उपकुलपति पद को गौरवान्वित कर रहे थे.
                    संसदीय मामलों के निष्‍णात विद्वानों में आपकी गणना थी. एक मूर्धन्‍य विधिवेत्‍ता के अतिरिक्‍त आप एक कुशल प्रशासक, महान शिक्षा शास्‍त्री तथा लेखक भी थे. इस प्रकार जीवन को पूर्ण बनाने वाला सम्‍भवत: कोई भी क्षेत्र उनके व्‍यक्तित्‍व से अछूता नहीं रहा.
                  उनके इन्‍हीं महान गुणों के कारण भारत सरकार ने उन्‍हें 1963 में ''पद्म विभूषण'' की उपाधि से अलंकृत किया था.
                              आपका दिनॉंक 21 फरवरी 1970 को पूना में स्‍वर्गवास हो गया.